जयपुर (सुभद्र पापड़ीवाल). राजस्थान की सियासत में मानेसर काण्ड के बाद सीएम अशोक गहलोत और पायलट के बीच दिखने वाली नजदीकियों की असल दूरियां जगजाहिर हो गईं. अब एक साल बाद फिर भले ही दोनों नेता एक दूसरे के खिलाफ सीधा तौर पर कुछ ना बोल रहे हों लेकिन उनके इशारे पर उनके कृपा पात्र विधायक बहुत कुछ बोल रहे हैं बयानों की बम्बारी ऐसी है कि फिर दोनों खेमों में महाभारत के आसार हैं.
लेकिन इस बार परिस्थितियां मानेसर काण्ड जैसी नहीं हैं, तब सचिन पायलट हावी थे और गहलोत सरकार बचाने के लिए डिफेंस की पॉजिशन में, लेकिन अब गहलोत हावी हैं और पायलट डिफेंस की की पॉजिशन में हैं. क्योंकि बुरे वक्त में अशोक गहलोत ने ऊपरी तौर पर यह दिखाने की कोशिश की कि वो सब कुछ भुलाकर अब पायलट को साथ लेकर चलने को तैयार हैं लेकिन इसी दौरान खुद को इतना मजबूत कर लिया की कोई सरकार गिराने की साजिश की सोचेे भी नहीं. यही कारण है कि अब मंत्रिमण्डल विस्तार तभी होगा जब वो चाहेंगे. या यों कहें कि इस मसले पर गहलोत ही आलाकमान हैं. जो उन्होंने दो माह तक खुद को आइसोलेट करके राजनीतिक मैसेज भी दे दिया.
ऐसे में फिलहाल की स्थिति में अब सचिन पायलट के साथ दो ही विकल्प बचें हैं, या तो वो जल्द निर्णय लें, या धेर्य रखकर कुछ वक्त और निकालें, लेकिन यह दोनों ही विकल्प घातक भी हैं. शायद इसलिए ही सचिन पायलट खुद भी इस दुविधा जरूर होंगे कि क्या करें, क्या ना करें.
1. फिलहाल की स्थिति की बात करें तो पायलट रसायन विज्ञान के उस मोड़ पर खड़े हैं जब एक क्षण की जल्दी और एक ही क्षण की देरी, पूरी रासायनिक प्रक्रिया को बर्बाद कर देगी. लेकिन सही समय और उचित कदम का चुनाव होगा कैसे ?
2. मौसमी राजनीतिक पंडितों को लगता है कि अभी की कांग्रेस में "आला कमान" नामक एक अदृश्य शक्ति है जो दिल्ली में बैठकर बड़े फैसले लेती है. जबकि सचमुच ऐसा है नहीं. क्योंकि फिलहाल पायलट गहलोत विवाद लम्बा चलने का यही सबसे बड़ा कारण है.
3. अहमद पटेल के निधन उपरांत और G 23 के गठन से उत्पन्न परिस्थितियों ने कांग्रेस में सबसे अधिक अनुभवी राजनीतिक खिलाड़ी और सबसे अधिक भाग्यशाली व्यक्तित्व के धनी अशोक गहलोत को स्वत: ही अघोषित आलाकमान बना दिया है. जो सचिन पायलट की दुविधा को बढाने वाला एक बड़ा फैक्टर है. और यह बात देशभर के कांग्रेस नेता जानते हैं और सचिन पायलट नहीं जानते हों, ऐसा हो नहीं सकता.
4. राजस्थान अशोक गहलोत की कर्म स्थली रही है. मदेरणा के बाद तो संगठन पर भी लगभग पूर्ण नियंत्रण गहलोत खेमे का हो गया था. राजेश पायलट सहित गिरिजा व्यास, चौधरी नारायण सिंह, बीडी कल्ला, सीपी जोशी और यहां तक कि पंडित नवल किशोर शर्मा जैसे सभी कद्दावर नेता भी अशोक गहलोत की दिल्ली की पकड़ को ढीला नहीं कर सके. और आज भी गहलोत ने इस पकड़ को इतना मजबूत बना रखा है कि गांधी परिवार पहले गहलोत की ही बातों को तवज्जो दे रहा है.
5. इधर भाजपा ने अपने किले के सभी दरवाजों को खोलकर विपक्षी धड़ों में हड़कंप मचा रखा है. Migration के मामले में "Forbidden City" वाले सभी पुराने मिथक तोड कर आसाम में कांग्रेस से आयातित हेमंता बिस्व शर्मा को मुख्यमंत्री बनाकर ना सिर्फ विपक्ष के कद्दावर नेताओं को उम्मीद का दामन थामने का मजबूत आधार दे दिया है बल्कि मुख्य राजनीतिक दलों को लगभग कौमा में पहुंचा दिया है. ज्योतिरादित्य सिंधिया हों या जितिन प्रसाद, ऐसे सभी नेताओं में भविष्य की आशंकाओं को निर्मूल साबित कर भाजपा ने सचिन पायलट को भी स्पष्ट संदेश दिया है कि संघ के लिए कोई अछूत नहीं है. ऐसे में पायलट भाजपा में चलें भी जाएं तो अभी उन्हें मिलेगा क्या यह पायलट और उनका खेमा सोचने को मजबूर है.
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6. इधर अशोक गहलोत पिछली बाड़े बंदी के बाद से ही अपनी समस्त ऊर्जा का नियोग पायलट की घेराबंदी करने में कर रहे हैं. उनकी राजनीतिक चतुराई का इससे बड़ा कोई दूसरा उदाहरण नहीं हो सकता कि जब पायलट को पार्टी के भीतर नहीं रोक पा रहे थे तब उन्होंने अपने संपर्कों का खूबसूरत इस्तेमाल करके पायलट के भाजपा में प्रवेश को रूकवा दिया. और पायलट मानेसर काण्ड के बाद यह चोट खा चुके हैं ऐसे में दुबारा रिस्क लेना खतरे से खाली नहीं.
7. गजेन्द्र सिंह अपनों का शिकार हुए तो गहलोत को परायों ने प्राण वायु दे दी. राजनीति का यह रूप विरले ही देखने को मिलता है. सचिन पायलट 35 विधायकों का अंक छू नहीं सके लेकिन जितने भी खुलकर साथ चले वे अशोक गहलोत की वक्र दृष्टि में रहने को विवश रहेंगे. सचिन केन्द्रीय सत्ता में जा सकते थे लेकिन अपने समर्थकों को दोराहे पर छोड़ना संभव नहीं था. ज्योतिरादित्य सिंधिया की टाइमिंग एकदम सटीक रही और अपने लगभग सभी समर्थकों को मध्यप्रदेश में पुनर्स्थापित कर दिया. लेकिन पायलट के पास फिलहाल ऐसा कोई मौका नहीं कि वो जल्दबाजी में निर्णय करें. वो भी ऐसे वक्त में जब पायलट के कोटे से मंत्री पद पर आसीन जयपुर के एक विधायक एन वक्त पर उनको पीठ दिखाकर चल दिए.
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8. बसपा का कांग्रेस में विलय पहली बार नहीं हुआ. निर्दलियों का समर्थन सत्तारूढ़ पार्टी को मिलना सामान्य बात है. लेकिन अपने अखंड निष्ठावान कार्यकर्ताओं और विधायकों को विशेष तरजीह का संदेश देकर गहलोत ने पायलट खेमे की उग्रता शून्य कर दी. जिससे मानेसर काण्ड वाला जोश और रिस्क लेने की क्षमता अब पायलट खेमे के विधायकों में नहीं दिखती. और तो और अब नया विधायक पायलट खेमे में जुड़ने से पहले भी 100 बार सोचेगा.
9. विश्वेन्द्र सिंह का विषय रहा हो, रमेश मीणा या चौधरी हेमाराम का इस्तीफा हो. सुभाष गर्ग के प्रति विधायकों में असंतोष रहा हो अथवा धारीवाल डोटासरा के बीच नोंक झोंक हुई हो... लगभग हर अवसर पर गहलोत ने अपने निष्ठावान कार्यकर्ताओं को ना सिर्फ पुरस्कृत किया बल्कि यह संदेश भी दिया कि वो दबाव को सहन कर सकते हैं. इसलिए नहीं कि वे राजस्थान में अपरिहार्य हैं, बल्कि इसलिए कि दिल्ली में ऐसा कोई नहीं है जो उनकी अनदेखी कर सके खास तौर पर ऐसे समय में जब जमीनों की फाइलें समझने वाले दो दो मुख्य मंत्री ऐसा ही चाहते हों.
10. यह पुनः स्मरण दिलाना आवश्यक है कि सचिन पायलट नंबर गेम में भले ही पिछड़ गए हों, उनका दावा अतिरेक में नहीं था. यदि ताजपोशी उनकी हुई होती तो आज टेबल की दिशा उलट होती और यही राजनीतिक सत्य है. लेकिन एक अब सचिन पायलट जल्दी करते हैं तो फंसते हैं और बैठे बैठे देखते रहे, देरी करते हैं तो गहलोत फिर एक मजबूत नेता के रूप में अपने आप को साबित करने में कामयाब होंगे, और राजस्थान में पायलट को कमजोर साबित करने में कामयाब हो जाएंगे.
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