भारत में कानून बना नागरिकता संशोधन विधेयक. 10 फैक्ट्स से समझें पूरे इतिहास और भावी चुनौतियों को


नई दिल्ली (सुभद्र पापड़ीवाल). देशभर में विरोध और समर्थन की राजनीतिक रस्म अदायगी के बीच नागरिकता संशोधन विधेयक कानून बन गया है. लोकसभा और राज्यसभा से पास होने के बाद राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने भी इसे मंजूरी दे दी. नागरिकता संशोधन बिल नागरिकता अधिनियम 1955 के प्रावधानों को बदलने के लिए पेश किया गया था. नागरिकता बिल में इस संशोधन से बांग्लादेश, पाकिस्तान और अफगानिस्तान से आए हिंदुओं के साथ ही सिख, बौद्ध, जैन, पारसी और ईसाइयों के लिए बगैर वैध दस्तावेजों के भी भारतीय नागरिकता हासिल करने का रास्ता साफ हो अब साफ हो गया है.

इसके अलावा भारत की नागरिकता हासिल करने के लिए देश में 11 साल निवास की बाध्यता घटाकर अब इसे 6 साल करने का प्रावधान हो गया है. बड़ी बात यह है कि ऐसे अवैध प्रवासी भारतीय नागरिकता के लिए सरकार के पास आवेदन कर सकेंगे, जिन्होंने 31 दिसंबर 2014 की निर्णायक तारीख तक भारत में प्रवेश कर लिया है. साथ ही यह भी साफ कर दिया गया है कि उनके विस्थापन या देश में अवैध निवास को लेकर उन पर पहले से चल रही कोई भी कानूनी कार्रवाई स्थायी नागरिकता के लिए उनकी पात्रता को प्रभावित नहीं करेगी.

 

विरोध क्यों?

नागरिकता संशोधन बिल के चलते जो विरोध की आवाज उठी उसकी वजह ये है कि इस बिल के प्रावधान के मुताबिक पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बांग्लादेश से आने वाले मुसलमानों को भारत की नागरिकता नहीं दी जाएगी. कांग्रेस समेत कई पार्टियां इसी आधार पर बिल का विरोध करती रहीं. इसके अलावा देश के पूर्वोत्तर राज्यों में इस विधेयक का विरोध इसलिए है क्योंकि उनकी चिंता है कि पिछले कुछ दशकों में बांग्लादेश से बड़ी तादाद में आए हिन्दुओं को नागरिकता प्रदान की जा सकती है, लेकिन मुस्लिमों को नहीं.

 

क्या कहा अमित शाह ने?

गृह मंत्री अमित शाह ने स्पष्ट किया कि 'भारत के मुसलमान भारतीय नागरिक थे, हैं और बने रहेंगे. उन तीनों देशों में अल्पसंख्यकों की आबादी में खासी कमी आयी है. विधेयक में उत्पीड़न का शिकार हुए अल्पसंख्यकों को नागरिकता प्रदान करने का प्रावधान है. यह प्रस्तावित कानून बंगाल सहित पूरे देश में लागू होगा. मुस्लिमों को चिंता करने की कोई आवश्यकता नहीं है क्योंकि वे भारत के नागरिक हैं और बने रहेंगे.'

 

कौन साथ, कौन विरोध में?

भाजपा, अन्नाद्रमुक, बीजद, जदयू, अकाली दल प्रमुख रुप से इस बिल के समर्थन में रहे वहीं कांग्रेस, टीएमसी, सपा, राजद, एनसीपी, माकपा, टीआरएस, डीएमके, बसपा, आप के अलावा मुस्लिम लीग, भाकपा और जेडीएस ने विरोध किया.

 

10 फैक्ट, इतिहास और चुनौतियां:

1. नागरिकता संशोधन बिल का विषय भारत में उतना ही पुराना है जितना पुराना भारत की आजादी अथवा विभाजन का इतिहास है. यह विवाद वर्षों से लंबित रहा है. सन 1950 में भारत के प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू और पाकिस्तान के प्रधानमंत्री लियाकत अली के बीच दिल्ली पैक्ट के नाम से एक समझौता हुआ. उस समझौते की रोशनी में यही कुछ विषय थे जो आज तक विवाद का सबब बने रहे हैं. तब यह निश्चित किया गया था कि भारत व पाकिस्तान में रहने वाले सभी धर्मों के लोग यदि अपने पुराने देश में अपने कुछ रिश्तेदारों को छोड़ कर आ गए हैं अथवा अपनी संपत्तियों का निस्तारण नहीं कर सके हैं, वे वहां आजादी से आ जा सकेंगे और उन्हें जरुरी सुरक्षा भी मुहैया कराई जाएगी. वैसे भारत में पाकिस्तान से आने वाले मुस्लिमों के लिए कोई रुकावट अथवा अड़चन नहीं थी क्योंकि पहले ही दिन से भारत एक धर्मनिरपेक्ष देश बना था, जबकि पाकिस्तान एक इस्लामिक रिपब्लिक ऑफ पाकिस्तान के रूप में गठित हुआ था.

2. विभाजन की भूमिका हालांकि बहुत पहले ही तैयार हो गई थी और सन् 1945 के आसपास बंगाल के दलित नेता जोगेंद्र नाथ मंडल यह स्पष्ट मानस बना चुके थे कि वे बहुत से दलित हिंदुओं को साथ लेकर पाकिस्तान में बस जाएंगे. यहां यह स्मरण करना आवश्यक होगा कि जिन्ना ने दो राष्ट्र के सिद्धांत के साथ यह मजबूती से प्रतिपादित किया था कि पाकिस्तान में भारत से आए अन्य सभी हिंदुओं को भी, जोकि मुख्यतः दलित हैं, बराबर का स्थान व सम्मान दिया जाएगा. अपने इस संकल्पना की पुष्टि के लिए जिन्ना ने जोगेंद्र नाथ मंडल को पाकिस्तान का पहला विधि मंत्री एवं कश्मीर मामलात मंत्री भी बनाया था और यह भी वादा किया था कि आने वाले समय में पूर्वी एवं पश्चिमी पाकिस्तान के सभी हिंदुओं को राज में, राजनीति में सेवा एवं नौकरियों में विशिष्ट प्रतिनिधित्व, एक आरक्षण के जरिए दिया जाएगा.

3. हालांकि 1947 में जो कुछ हुआ वह राष्ट्र का विभाजन था एवं इस विभाजन में भारत में रहने वाले नागरिकों की कोई भूमिका नहीं थी. एक पक्ष की मांग पर धार्मिक आधार पर एक नया देश बनाया गया था जिसे मूल भारत का 26% हिस्सा देकर के इस्लामिक रिपब्लिक आफ पाकिस्तान के रूप में गठित किया गया. इस कारण 1947 में जो नागरिकों की अदला-बदली हुई उसमें किसी भी तरफ आने जाने वाले लोगों को शरणार्थी कहना अथवा मुहाजिर कहना या रिफ्यूजी की संज्ञा देना तकनीकी रूप से बिल्कुल गलत था क्योंकि वे लोग उसी स्थान के मूल निवासी थे एवं अपने देश के नागरिक थे. वह देश बाद में बना था उनकी नागरिकता पुरानी थी इसलिए उन्हें शरणार्थी की संज्ञा देना सर्वथा भूल थी.

4. इस तकनीकी खामी का खामियाजा मुख्य रूप से उन नागरिकों ने उठाया जो धार्मिक आधार पर बने देश में अपनी अन्य, प्रथक धार्मिक मान्यताओं के साथ रहना चाहते थे. चाहे पूर्वी पाकिस्तान जो बाद में बांग्लादेश बना अथवा पश्चिमी पाकिस्तान जहां राजधानी थी. इन दोनों ही स्थानों पर गैर मुस्लिम प्रजातियों के साथ में प्रताड़ना एवं भेदभाव का सिलसिला सर्वविदित है, इतिहास गवाह है जो 1947 के काल से ही प्रारंभ हो चुका था और बदस्तूर जारी रहा. तब जोगेंद्र नाथ मंडल लाख कोशिशों के बावजूद हिंदुओं की संपत्तियों की लूट को, उनकी महिलाओं के हर रोज होने वाले अपहरणों और बलात्कारों को एवं सभी प्रकार के दोयम दर्जे के व्यवहार को रोकने में नाकाम रहे. वे अपने 32 बिन्दुओं के इस्तीफे, जो उन्होंने लियाकत अली को लिखा था, में उन सभी हृदय विदारक घटनाओं का वर्णन देकर, बहुत खिन्न भाव लेकर भारत लौट आए. यही सभी कारण इन देशों में अल्पसंख्यकों को सुरक्षा देने हेतु भारत के चिंतकों को प्रेरित करने के लिए पर्याप्त थे.

5. वर्ष 2014 में भाजपा ने सत्ता में आने से पहले यह संकल्पना दोहरा दी थी कि वह पड़ोसी देशों में प्रताड़ित किए जा रहे अल्पसंख्यकों को भारत की नागरिकता देने हेतु कोई न कोई ठोस पहल अवश्य करेंगे. लेकिन इससे महत्वपूर्ण बात यह है कि लगभग विगत 20 वर्षों में वामपंथी नेता चाहे वे प्रकाश करात हों या तृणमूल कांग्रेस की ममता बनर्जी हों अथवा कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं में से एक एवं पूर्व प्रधानमंत्री डॉक्टर मनमोहन सिंह ही क्यूं ना हों. यह सभी नेता पड़ोसी देशों में अल्पसंख्यकों के साथ हो रही इस प्रताड़ना के व्यवहार के प्रति भारत की सरकारों को ना सिर्फ लिखित में बल्कि सदन की बहस में भी बारंबार सचेत करते रहे. वे उनके प्रति सौहार्द पूर्ण रवैया अख्तियार करने की पुरजोर पैरवी भी करते थे.

6. तसलीमा नसरीन, सलाम आजाद, मुंतजिर मैमून, शहरयार कबीर सरीखे सभी बांग्लादेश के उदारवादी लेखकों ने भारत का ध्यान इस ओर भी दिलाया कि जब पाकिस्तान से आए डा. मनमोहन सिंह और इंद्र कुमार गुजराल भारत के प्रधानमंत्री बन सकते हैं. जब पाकिस्तान से ही आए लालकृष्ण आडवाणी भारत के उप प्रधानमंत्री बन सकते हैं तो वहां के सताए हुए शरणार्थियों को भारत में आश्रय न देने का कोई ठोस आधार नहीं है.

7. इस कानून के लागू होने की तारीख 31 दिसम्बर 2014 से यह स्पष्ट है कि इस तारीख के बाद सताए गए लोगों के प्रति संवेदना का सिद्धांत किस तरह से लागू होगा. जिन कारणों की दलील सदन में दी गई थी वे कारण दोनों ही मुल्कों में अब भी विद्यमान हैं. फिर संशोधन ही किया गया था तो यह तीन पडौसी देशों तक सीमित है एवं व्यापक नहीं होने से म्यांमार और श्रीलंका के अल्पसंख्यकों के विषय पर प्रकाश नहीं डालता.

8. सर्वोच्च न्यायालय में संविधान के अनुच्छेद 14 के प्रावधानों का बचाव करना मुश्किल होगा. साथ-साथ आर्टिकल 371 के अंतर्गत आने वाले सिक्किम और पूर्वोत्तर के राज्यों के नागरिकों में विश्वास का संचार करना एक दुरूह कार्य साबित होगा. इन राज्यों में इस बिल को लेकर घोर असुरक्षा और असंतोष की भावना बनी हुई है. इनर लाइन परमिट के प्रावधान अभी मणीपुर में नहीं हैं. लेकिन संदेह सभी राज्यों में बना हुआ है. वे यह तो मानते हैं कि पडौसी बांग्लादेश में प्रताड़ित अल्पसंख्यकों को सुरक्षा मिलनी चाहिए लेकिन बंग्ला भाषियों ने पहले ही इनकी पहचान पर संकट खड़ा कर दिया था और आर्टिकल 371 के बावजूद वहां घुसपैठ बड़े पैमाने पर होती रही है.

9. आईबी की रिपोर्ट के मुताबिक अभी इस श्रेणी में आ रहे नागरिकों की संख्या सिर्फ 30000 (तीस हजार) ही है जिनके लिए इतना झमेला हुआ है. लेकिन जो इस कानून को बनने के बाद नागरिकता की पात्रता खो देंगे उनकी संख्या करोड़ों में हो सकती है.

10. अब सरकार के सामने उस प्रचार से निपटने चुनौती है जो राजनीतिक पटल पर विपक्षी दलों ने जोरदार तरीके से शुरू कर दिया है. सरकार विपक्ष की परवाह ना भी करें तो भी इन्हें यह देखना ही होगा कि वो भारत में रह रहे अल्पसंख्यकों, खासकर मुस्लिमों में विश्वास का पुनः संचार किस तरह किया जाए. 371 के प्रावधानों को किस तरह से सुरक्षित रखा जाए. सरकार पर देश में मौजूद सभी जाति और धर्म के लोगों को एक साथ लेकर चलना और उनमें आपसी सौहार्द, भरोसा बनाए रखने की बड़ी चुनौती होगी.