शाह से 'मिले' कैप्टन, अब किसान आंदोलन का भविष्य क्या होगा?


नई दिल्ली (सुभद्र पापड़ीवाल)। कैप्टन अमरिंदर सिंह चले गए। कहां गए यह महत्वपूर्ण नहीं है। कांग्रेस से मोहभंग हो चुका, शायद यह ज्यादा महत्वपूर्ण है। सिद्धू आशंकाओं पर एकदम खरे उतरे। मानव बम वाली कहावत चरितार्थ कर ही दी। राजनीति के जानकार। मानते हैं कि राहुल-सिद्धू-कान्हू-जिग्नू नाम की मिसाइलें आत्मघाती होनी ही हैं। कपिल सिब्बल ने टेबल सजा ली है।

गुलाम नबी बहुत पहले ही टेबल की दूसरी तरफ बैठे हैं। केंद्र से शाबाशी और सम्मान की पात्रता विकसित कर ली है। बादल तो अरसे से किसान आंदोलन पर "हटो -बचो" की भूमिका में चल रहे हैं। सारा दारोमदार अब आखिरी दिग्गज पर आन पड़ा है। एक मात्र विरासत बची है कांग्रेस में, वो है राजस्थान में। वहां आत्मघाती मिसाइलें कब गिर पडे, कोई नहीं बता सकता।

पंजाब सीमा हमेशा से अति संवेदनशील रही है। पाकिस्तान की कोई भी खुराफात होने पर ये मिसाइलें भारत पर ही गिर जाएं तो आश्चर्य नहीं करें। अब कैप्टन अमरिंदर सिंह केंद्रीय मंत्री बन भी जाएं तो भारी मुसीबत में घिर जाएंगे। किसान आंदोलन का सम्मानजनक हल निकाले बिना कैप्टन का भाजपा में समावेश उनके लिए आत्महत्या से कम नहीं होगा।

दूसरी ओर किसान आंदोलन को प्राणवायु की आपूर्ति का समस्त दायित्व अब राजस्थान पर आ गया है। वैसे राजस्थान में गहलोत खेमे के लिए एक लिहाज से यह राहत भरा पल है। लेकिन सवाल यह है कि किसान आंदोलन के 'कैप्टन' भाजपा से जुड़ गए तो क्या किसान आंदोलन इतनी ही मजबूती से जारी रह पाएगा? या फिर क्या पंजाब में कांग्रेस पर आई राजनीतिक आपदा का शिकार किसान आंदोलन हो भी हो जाएगा?

भाजपाई इस बात से उत्साहित हैं कि लंबे समय से चल रहा किसान आंदोलन शायद अब कमजोर करने में वह कामयाब होने वाले हैं, लेकिन किसान कितनी मजबूती से उसका सामना कर पाते हैं और राजस्थान की कांग्रेस सरकार किस तरह से अपने दायित्व को इस आंदोलन के मामले में निभाती है यह सब कुछ आने वाले कुछ दिनों में साफ हो जाएगा।