बड़ा सवाल, आखिर लोकतंत्र में अंतत: पार्टियों, उनके सांसदों और विधायकों की जवाबदेही किसके प्रति हो?


नई दिल्ली (विशेष आलेख) . हरियाणा के राजनैतिक घटनाक्रम के बाद एक फिर ये प्रश्न ज्वलन्त हो गया है कि लोकतंत्र में पार्टियों, उनके सांसदों और विधायकों की जवाबदेही अंततः किसके प्रति होनी चाहिए? कैम्पेन के दौरान आवाम के सामने रखे वायदों, योजनाओं, नीतियों के प्रति जिनके दम पर सदन में जीत कर आये हैं अथवा अपनी निजी महत्वाकांक्षा के प्रति या हाईकमान की सत्ता लोलुपता के प्रति? विधायकों और सांसदों की निजी महत्वाकांक्षा पर तो हमने दल-बदल अधिनियम के दम पर अंकुश लगा दिया है. जिस दल से वे जीत कर आये हैं उससे दीगर वो कुछ भी नही सोच सकते. जैसे ही हाउस में हाईकमान द्वारा तय पार्टी लाइन से कुछ डिफरेंट एक्ट किया नहीं कि सांसद या विधायक रहने की पात्रता समाप्त. लगातार इस कानून को सख्त से सख्त बनाने की कोशिश भी की गई है. 52 वें संशोधन के तहत बने इस कानून में एक तिहाई सदस्य मिलकर तय पार्टी लाइन से दीगर भी सोच सकते थे. कालांतर में इसे भी बढ़ा कर दो तिहाई कर दिया गया. यानी कि सरकार बनाने के लिए तो मात्र 51% बहुमत चाहिए किन्तु हाईकमान के रुख से अलग सोचने के लिये पार्टी के विधायक और सांसदों का 66.66% बहुमत चाहिए, है ना दिलचस्प बात. इन सबके लिए तर्क दिया गया कि जनता ने किसी भी सदस्य को मात्र व्यक्तिगत है सियत से ही नही बल्कि उसके दल के चुनाव चिन्ह को उनके कार्यक्रमों, योजनाओं, वादों और घोषणा पत्रों से प्रभावित हो कर वोट दिया है. ऐसे में अगर विधायक जिस दल से जीत कर आया है उससे अलग हट कर कुछ सोचता है तो ये जनादेश के साथ एक तरीके से धोखा है. वैसे देखा जाए तो बात तार्किक सी दिखती है. किन्तु सोचने वाली बात यह है कि दल बदल विरोधी कानून जनादेश में छिपी इस नैतिकता को सदस्यों पर तो पूरी ताकत से आरोपित कर देता है किंतु इस कानून के दम पर निरंकुश बना हाईकमान स्वयं इससे विपरीत आचरण करते हुए जनादेश का सौदा कर डाले तो इस विधि में उस पर अंकुश लगाने का कोई प्रावधान नही है.

कानून में इस कमी के चलते बहुधा हाईकमान विशेषकर क्षेत्रीय पार्टियां जनादेश की भावना से बिल्कुल यू टर्न तक कर लेती है, यहां तक कि जिस दल के खिलाफ सत्ता विरोधी माहौल बना कर वो चुनाव जीत कर आई हैं, जिस दल के विरोध में उन्हें जनादेश मिला है, उसी के साथ सारी नैतिकता को ताक में रख, घिनौनी सौदेबाजी कर सत्ता में जा बैठते है. लब्बोलुआब बात ये है कि इस कानून ने कुछ हद तक दलीय सांसदों और विधायकों की इंडिविजुअल हॉर्स ट्रेडिंग पर तो अंकुश लगा दिया है किन्तु इस कानून की बिना पर भयंकर रूप से ताकतवर हुआ हाईकमान अपने सभी सदस्यों को एक मुश्त बेच कर आ सकता है.

विडम्बना तो ये है कि इस सामूहिक बिक्री का अगर कोई सदस्य सदन में विरोध कर दे तो कानून की मार सदस्य पर ही पड़ेगी, बकौल इस कानून 'हाईकमान करे तो लीला, सदस्य करे तो करेक्टर ढीला'. बात केवल सरकार बनने-बनाने पर ही खत्म नही होती, इस कानून ने सदन में हर ढंग के स्वस्थ्य तर्क-वितर्क, जो भारतीय परम्परा का हजारों साल से अभिनव अंग रहा है, को भी खत्म कर दिया है. एक बार किसी प्रश्न पर व्हिप जारी हुआ नहीं कि सदस्यों को चाह कर भी अपने दिल और दिमाग पर ब्रेक लगाना पड़ता है. कल्पना कीजिये क्या ऐसे किसी कानून के होते हुए संविधान निर्मात्री सभा में वैसी गौरवशाली बहस हो सकती थी, जिन पर आज पूरा भारत गौरव करता है?

भारत के संसदीय लोकतंत्र में जहां आजादी के मात्र 70 साल में ही अधिकांश क्षेत्रीय दलों पर हाईकमान के रूप में कोई न कोई परिवार काबिज हो गया है, वहां इस विधि ने इन दलों पर सत्ता लोलुप कुछ परिवारों की सत्ता को परपिच्यूएट करने के सिवाय कुछ नही किया. फिर भी इन दलों के हाईकमान चुनावी टिकिट देते वक्त भी इस बात पर बहुत ही गम्भीरता से ध्यान रखते हैं कि कोई मौलिक चिंतक या रीढ़ वाला स्वतंत्र व्यक्तित्व टिकिट हासिल न कर पाए जो उन्हें कभी चुनौती दे. शेष सुरक्षा उन्हें दल बदल विधेयक से मिल ही जाती है. कानून की आड़ में ये कथित हाईकमान अपने संसदीय दलों का, पारिवारिक निजी हित के लिए, खुले आम बेचान करते हैं. इससे बड़ा दुर्भाग्य भारतीय लोकतंत्र का क्या होगा? अब वक्त आ गया है जब इस कानून के जरिये दलीय नेतृत्व को भी अपने कैम्पेन के दौरान दिखाए, सब्जबागों, वादों, योजनाओं के प्रति जवाबदेह बनाया जाए और अगर ऐसा करने में नाकामयाब होते दिखे तो फिर सदस्यों को स्वतंत्रता होनी चाहिए कि वो अपनी अंतरात्मा की आवाज पर निर्णय ले सके.

- सुनील शर्मा, राजनीतिक विश्लेषक, कांग्रेस विचारक और शिक्षाविद्

(यह लेख जाने-माने राजनीतिक विश्लेषक, कांग्रेस विचारक और शिक्षाविद् सुनील शर्मा के व्यक्तिगत अनुभव पर आधारित है.)