विशेष: गांधी जी एक व्यक्ति ही नहीं बल्कि अपने आप में एक संस्था


गांधीजी एक व्यक्ति ही नहीं बल्कि अपने आप में एक संस्था व युग दृष्टा थे। गांधी जी के विचार इतने गहन थे कि शायद उस समय उनके विचारों का महत्व हम नहीं समझ पाए वरना आज विश्व जिन समस्याओं का सामना कर रहा है उसकी नौबत नहीं आती।

आज विश्व दो बड़ी समस्याओं से जूझ रहा है। पहली बेरोजगारी और दूसरी पर्यावरण संरक्षण। दोनों ही समस्याओं का समाधान गांधी जी की विचारधारा में मौजूद है, दुर्भाग्य है कि गांधीजी के विचारों को हमने महत्व नहीं दिया। श्रम के महत्व पर उनका बहुत बल था।शिक्षा भी ऐसी होनी चाहिए जो श्रम आधारित,हस्तशिल्प आधारित हो जैसे बागवानी ,चरखा चलाना, लकड़ी के कार्य (कार्पेंट्री), मृदा के शिल्प आदि। बच्चे हस्तकला के माध्यम से भाषा, गणित व सामाजिक विज्ञान सीख जाते हैं। हस्त कार्य, आत्मा व मस्तिष्क के बीच समन्वय आवश्यक है। शिक्षा ऐसी होनी चाहिए जो इन तीनों में संतुलन रख सके। राष्ट्रीय शिक्षा नीति- 2020 में कक्षा 6 से सभी विद्यार्थियों को व्यावसायिक शिक्षा से जोड़ने की अनुशंसा की है। वास्तव में यह गांधी जी की विचारधारा व बुनियादी शिक्षा का स्वरूप ही है।

गांधी जी को इस बात का पूरा अंदेशा था कि यदि हस्त कला को शिक्षा में स्थान नहीं दिया गया तो भविष्य में डिग्री धारी शिक्षित बेरोजगारों की लाइन लग जाएगी जो न श्रम के द्वारा रोजगार प्राप्त कर पाएंगे ,ना नौकरी मिल पाएगी। आज बेरोजगारी एक बड़ी समस्या बन गई है। युवाओं के पास डिग्री तो है पर व्यावसायिक कौशल नहीं है अतः उनकी निर्भरता डिग्री आधारित नौकरियों की है। नौकरी ना मिलने पर वे भटक रहे हैं, गलत रास्ते अपना रहे हैं। गांधी जी ने बहुत पहले ही इस समस्या की संभावना को इंगित कर दिया था। इसीलिए उन्होंने बुनियादी शिक्षा के अंतर्गत उद्योगों पर आधारित शिक्षा पर बल दिया।बालक किसी न किसी हस्त कार्य को सीख कर आत्मनिर्भर बन सकता है।

आज विद्यार्थी अच्छे अंक तो ले आता है बावजूद इसके व्यावहारिक ज्ञान न्यून रह जाता है। अपने ज्ञान का उपयोग दैनिक जीवन की समस्याओं को सुलझाने में नहीं कर पाता है क्योंकि उसने करके नहीं सीखा बल्कि रटकर सीखा है। विद्यार्थी जब बागवानी करता है तो मिट्टी, उर्वरक, जड़, तना, फल आदि की जानकारी स्वत ही प्राप्त होती चली जाती है। अपने उत्पाद को तोलना,बेचना, हिसाब करना वह आनंद के साथ सीख लेता है। उसमें एक आत्मविश्वास व संतुष्टि का भाव पैदा होता है तथा पर्यावरण के साथ जुड़ाव सहज उत्पन्न होता है।आत्मनिर्भर भारत का सपना मूलतः गांधीजी का था जिसे मोदी जी ने जीवंत किया है।

गांधीजी के अनुसार मनुष्य को अपना कार्य स्वयं करना चाहिए। किसी पर निर्भर नहीं रहना चाहिए, इससे भेदभाव व असमानता नहीं आएगी। गांधी जी ने शहरीकरण के घातक परिणामों के प्रति भी आगाह किया था।युवा गांव छोड़कर शहरों की ओर रुख कर रहे हैं, इससे पारंपरिक व्यवसाय समाप्ति की ओर हैं। शहरों पर भारी जनसंख्या का दबाव है, पर्यावरण की अनदेखी कर शहरों का तेजी से विस्तार किया जा रहा है। दूसरी वैश्विक समस्या पर्यावरण संरक्षण व अस्तित्व की है। प्रकृति के पास सबको देने की क्षमता है पर लालच की पूर्ति की नहीं। आज हम भौतिकता की अंधी दौड़ लगा रहे हैं। हमारी आवश्यकताएं असीमित हैं, उतना ही विश्व में कचरा भी बढ़ रहा है। जितनी ज्यादा आवश्यकता है उतना ही अधिक प्रकृति का दोहन हो रहा है।

हमारी आवश्यकता की पूर्ति निश्चित है कार्बन फुटप्रिंट बढ़ाने का कारण बनती है। आज सीवरेज ट्रीटमेंट पर मॉडल विकसित किए जा रहे हैं जबकि गांधी जी ने अपने समय में उसे खाद बनाकर इससे कृषि उत्पाद बढ़ाने की बात कही थी। वे वैज्ञानिक भले ही नहीं थे पर उनकी सोच वैज्ञानिक थी। किसानों के उत्पाद को बढ़ाने के लिए उन्होंने कई प्रयोग किए। एक बार नागपुर में कपास की उपज कम होने पर उन्होंने यूरिन मिली मिट्टी डालकर उत्पाद में डेढ़ गुना वृद्धि कर सफल प्रयोग किया। ऐसे प्रयोग दो तरफा हितकारी हैं। एक तरफ शून्य वेस्ट व दूसरी तरफ उत्पाद बढ़ाना। गांधीजी जो कुछ कहते थे पहले स्वयं प्रयोग करके देखते, फिर संदेश देते थे। गांधी जी के चिंतन व लेखन में पर्यावरण शब्द कहीं नहीं मिलता है पर उनकी जीवनशैली का हर कदम पर्यावरण संरक्षण की ओर अग्रसर है। साबरमती आश्रम में वह एक लोटे पानी की बात कहते थे। एक बार उनके एक साथी मोहन पंड्या ने उनसे पूछ ही लिया कि साबरमती में इतना पानी है फिर भी आप एक लोटे पानी की बात क्यों कहते हैं। इस पर गांधी जी ने जवाब दिया कि साबरमती का पानी सभी जीव जंतु, पक्षी व अन्यों के लिए है। तुम्हें जरूरत से अधिक जल लेने का हक नहीं है। साबरमती सब की है। गांधीजी बंद लिफाफे में आई चिट्ठियों को खोल कर लिफाफे के अंदरूनी भाग को भी लेखन के कार्य में प्रयुक्त करते थे। गांधीजी खेती के लिए रासायनिक उर्वरक व कीटनाशकों के भी खिलाफ थे। आज अत्यधिक रसायनों के प्रयोग से कैंसर जैसे रोगों को हमने आमंत्रित किया है।

अब धीरे-धीरे लोगों को समझ आ गया कि यह कीटनाशक हमें भी बर्बाद कर रहे हैं ।कई उच्च शिक्षित युवा रसायन मुक्त कृषि की ओर उन्मुख हो रहे हैं। यूनेस्को ने 2015 में संपोषित विकास हेतु 17 लक्ष्य तय किए हैं, जिन्हें 2030 तक पूर्ण करने की तय सीमा है। संपोषित विकास के ये 17लक्ष्य (SDG 17)-गांधी जी की विचारधारा में उपलब्ध हैं जो उन्होंने 1941 में दिए थे। इस प्रकार गांधी जी के विचारों की आज वैश्विक प्रासंगिकता है। हमने प्रकृति को सोने के अंडे देने वाली मुर्गी के समान समझ लिया और अनवरत दोहन करते चले जा रहे हैं। प्रकृति की सहनशक्ति समाप्त हो चुकी है। अभी भी समय है कि हम गांधी जी की जीवन शैली को तथा उनकी विचारधारा को अपने जीवन में उतार ले वरना इस संसार का अस्तित्व खतरनाक मोड़ पर है।

लेखक: प्रो. सुषमा तलेसरा